Tuesday, December 16

शाहजहांपुर।सिनेमा साहित्य है, फिलासफी है- राजेश जैस

सिनेमा साहित्य है, फिलासफी है- राजेश जैस

सत्य रथ ब्यूरो

शाहजहांपुर / रब ने बना दी जोड़ी ,राणा नायडू ,मिली ,स्कैम 1992 एयरलिफ्ट ,राजी, रुद्रा, तू झूठी मैं मक्कार जैसी फिल्मों और वेब सीरीज में मुख्य किरदार निभाने वाले प्रसिद्ध बॉलीवुड एक्टर राजेश जैस का कहना है कि फिल्म मूवी और सिनेमा इन तीनों की डेफिनेशन अलग-अलग है । उन्होंने कहा कि फिल्म मेकिंग में तकनीक इंवॉल्व होती है, दूसरा शब्द है मूवी जिसमें बिजनेस निहित होता है। सिनेमा मैं साहित्य इंवॉल्व होता है फिलासफी इंवॉल्व होती है । मैं अपनी बात करूं तो मैं बिजनेस में नहीं हूं तकनीक में नहीं हूं केवल एक्टिंग में हूं ,इसलिए एक्टिंग में व्यवसायिकता नहीं सात्विकता आती है। आज के व्यावसायिक युग में सिनेमा बनाने वाले लोग बहुत कम है ।

जंबोरी टॉकीज प्राइवेट लिमिटेड के बैनर तले बन रही श्री फिल्म एक कंपलीट सिनेमा है जिसे लोग देखना पसंद करेंगे । फिल्म की डायरेक्टर अनुगा खंडेलवाल और क्रिएटिव डायरेक्टर सुभाष शुक्ला ने इस तरह के सिनेमा को बनाकर हिम्मत का काम किया है । उन्होने बताया कि श्री फिल्म में वह एक आचार्य की भूमिका निभा रहे हैं, जिसके समक्ष फिल्म का हीरो कुछ प्रश्न लेकर आता है जिनका उत्तर उनके द्वारा दिया जा रहा है । उन्होंने कहा कि कलाकार को समझना जरूरी होता है कि फिल्म में जिस किरदार को वह निभा रहा है वह किरदार फिल्म में क्यों डाला गया है । इतना समझ लेने के बाद ही सही मायने में किरदार को निभाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सिनेमा में बुराई का अंत होता है। हर सिनेमा में यही दिखाया जाता है और इसलिए हर सिनेमा का सनातन सत्य यही होना चाहिए कि हम बुराई का नाश कैसे कर सके। यही समाज को संदेश भी दिया जाना चाहिए तभी सिनेमा सार्थक है ।

मुग़ल-ए-आज़म जैसे विश्व प्रसिद्ध थिएटर में मुख्य किरदार निभाने वाले राजेश ने कहा कि एक्टिंग पूजा है अर्चना है साधना है आराधना है । इसे ठीक उसी तरह से करना चाहिए जिस तरह से हम निराकार ईश्वर में ध्यान केंद्रित कर अपने आप को देखते हैं और उसी में आत्मसात हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि आजकल ऐसा सिनेमा भी बन रहा है जिसमें वह कई सवाल छोड़कर जाता है । मैं स्वयं की बात करूं तो मैं खुद ऐसा सिनेमा देखना पसंद करता हूं जिसे देखने के बाद मैं नम हो जाऊं । 3 घंटे तक सिनेमा मेकर ने जो दुनिया हमें दिखाई है उस दुनिया में रहूं । तीन-चार दिन तक इस सिनेमा में खोया रहूं। सिनेमा की सार्थकता तभी है।

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