कवि और समाज सुधारक संत शिरोमणि गुरु रविदास समतामूलक समाज के पक्षधर
कृष्ण मोहन उपाध्याय
आजमगढ़। भारत वर्ष संतों और गुरुओं का देश है। यहां एक से एक बढ़कर संत गुरु पीर पैगम्बर समाज सुधारक लेखक कवि पैदा हुए हैं। जिन्होंने अपनी अमृत बाणी लेखनी आचार विचार से सत्य अहिंसा के रास्ते पर चलकर पूरी दुनियां में मानवता का संदेश दिया है। देश को एकता अखंडता के सूत्र में पिरोने का काम किया है। इन्हीं में संतों में एकू महान संत थे संत शिरोमणि गुरु रविदास। जिनकी जयंती माघ पूर्णिमा को पूरी दुनियां में मनाई जाएगी।भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत और समाज सुधारक संत शिरोमणि गुरु रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के छीर गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। इनका जन्म रविवार को हुआ था। माना जाता है कि रविवार को जन्म लेने के कारण इनका नाम रवि रखा गया था। कौन जानता था कि माता कर्मा की गोद में जन्मा बालक रवि आगे चलकर सूर्य की तरह चमकेगा और पूरी दुनियां को रोशनी देगा।इनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम कालूराम जी, दादी का नाम श्रीमती लखपती , धर्म पत्नी का नाम श्रीमती लोनाजी और पुत्र का नाम श्री विजय दास जी है।संत शिरोमणि गुरु रविदास भारत के एक महान संत थे। वे कबीर जैसे कवियों के समकालीन थे। वे एक दूसरे को अपना गुरु भाई मानते थे। संत रविदास उस समाज से थें जो बौद्धिक और ज्ञान से एक दम अछूता था।संत शिरोमणि सच्चे संत के साथ साथ कवि और समाज सुधारक थे। उनकी गणना भारत में ही नहीं पूरी दुनियां में एक महान संत के रूप में की जाती है। भाग्य वादी नहीं थें।उनका कहना था की कर्म ही धर्म है। मन चंगा कठौती में गंगा प्रचलित कहावत है।वे अपने काम को करते हुए ज्ञानार्जन के साथ साथ सदियों से दबे कुचलें लोगों को जगाने का काम किया।उन्होंने जाति पाति , छुआ छूत, ढोंग पाखंड आडम्बर पर करारा प्रहार किया है।
” जात जात में जात है,जस केलन के पात । रैदास न मानुख जुड़ सकै,जब तक जात न जात।।
वे समतामूलक समाज के शसक्त पक्षधर थे। अपनी रचनाओं के माध्यम से जातिगत भेदभाव को दूर करने और सामाजिक समरसता एकता अखंडता आपसी भाईचारा एवं सौहार्दपूर्ण वातावरण को बढ़ावा देने की कोशिश की है। संत रविदास ने ढोंग पाखंड आडम्बर पर करारा प्रहार करते हुए लिखा कि
जीवन चार दिवस का मेला रे
बांभन झूठा , वेद भी झूठा , झूठा ब्रह्म अकेला रे ।
मंदिर भीतर मूरति बैठी , पूजति बाहर चेला रे ।
लड्डू भोग चढावति जनता , मूरति के ढिंग केला रे
पत्थर मूरति कछु न खाती , खाते बांभन चेला रे ।
जनता लूटति बांभन सारे , प्रभु जी देति न धेला रे ।
पुन्य पाप या पुनर्जन्म का , बांभन दीन्हा खेला रे ।
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो , गुरु शिष्य या चेला रे ।
जितना दान देव गे जैसा , वैसा निकरै तेला रे ।
बांभन जाति सभी बहकावे , जन्ह तंह मचै बबेला रे
छोड़ि के बांभन आ संग मेरे , कह विद्रोहि अकेला रे।।
संत रविदास की वाणी के अनुवाद दुनिया की कई भाषाओं में उपलब्ध हैं।संत शिरोमणि रविदास की जयंती देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मनाई जाती है। मध्य कालीन युग के ग्रंथ भक्तमाल से पता चलता है कि वे रामानंद के शिष्य थे। उन्हें कबीर के समक्ष माना जाता है। मध्ययुगीन ग्रंथ रत्नावली में कहा गया है कि रविदास अपना अध्यात्मिक ज्ञान रामानंद से प्राप्त किया था। रामानंद रामानंदी सम्प्रदाय के अनुयाई थे। संत शिरोमणि ने रविदासीया पंथ की भी स्थापना की। आज भी बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयाई हैं।संत शिरोमणि द्वारा रची गयी रचनाओं से भक्ति और प्रेम के साथ साथ जीवन में संतुलन बनाए बनाये रखने की सीख मिलती है। संतों गुरुओं की कहानियों पढ़कर सुनकर हम अध्यात्मिक मार्ग को समझ सकते हैं। बहुत कुछ सीख सकते हैं। और अपने जीवन में उसका अनुसरण समाज व देश के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। रैदास जी की रचनाओं में सरल एवं व्यवहारिक ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। इसके आलावा अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली, उर्दू फारसी का मिश्रण भी देखने को मिलता है। कहते हैं संतों महात्माओं, विद्वानों की कोई जाति नहीं होती। जहां से ज्ञान मिलें प्राप्त कर लेना चाहिए।जाति न पूछो साधु की,पूछ लिजिए ज्ञान,मोलकर तलवार की, पड़े रहन दो म्यान। संत शिरोमणि के ज्ञान से प्रभावित होकर मेवाड़ के राज परिवार की मीरा बाई इनकी शिष्या बन जाती है।
