अमझरिया से गूंजा “बाबा नाम केवलम” — श्री श्री आनन्दमूर्ति ने दी कीर्तन की नई दिशा
विनीत कुमार ,रांची,झारखंड। कीर्तन अध्यात्म से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में श्री श्री आनन्दमूर्ति का आविर्भाव मानव इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में हुआ। उस समय जब मानव जीवन में भावनात्मक जुड़ता और आध्यात्मिक शून्यता घर कर चुकी थी, तब परमगुरु आनन्दमूर्ति ने मध्य बीसवीं सदी में आनन्द मार्ग संस्था की स्थापना कर मानवता के मार्ग को प्रकाशमान किया। उन्होंने मानव मनोविज्ञान, शरीर संरचना और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अष्टांग योग को नये सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। धर्म, दर्शन, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, साहित्य, कला एवं विज्ञान जैसे विविध क्षेत्रों में उन्होंने मौलिक विचारों का प्रसार किया और एक समग्र अध्यात्म दर्शन का प्रतिपादन किया। आनन्द मार्ग के प्रारंभिक दिनों में ज्ञान और साधना की चर्चा व्यापक रूप से होने लगी। साठ के दशक में उत्साही युवाओं के एक समूह ने मार्ग के आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाने हेतु स्वयं को पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में समर्पित किया। इन समर्पित साधकों द्वारा विद्यालय, महाविद्यालय, शिशुसदन, आभा सेवा सदन आदि की स्थापना की गई। साथ ही, राहत एवं त्राण कार्यों को भी गति मिली।
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सेवा कार्यों के दौरान जब साधक जड़-जगत के अधिक सम्पर्क में आने लगे, तब परमपूज्य आनन्दमूर्ति ने यह अनुभव किया कि उनकी साधना ऊर्ध्वगामी बनी रहनी चाहिए। साधकों की आन्तरिक उन्नति एवं समाज में कीर्तन के व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 8 अक्टूबर 1970 को रांची से लगभग 60-70 किलोमीटर दूर डाल्टनगंज रोड स्थित अमझरिया वन विभाग के विश्रामागार में “बाबा नाम केवलम” अष्टाक्षरी मंत्र को विभिन्न राग-रागिनियों के साथ प्रवर्तित किया। यह दिन न केवल आनन्द मार्ग के इतिहास में बल्कि संपूर्ण मानव समाज के आध्यात्मिक इतिहास में एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ। इस दिवस से कीर्तन केवल भक्ति का माध्यम न रहकर, मानव मन की शुद्धि और समाज की एकता का प्रतीक बन गया।

